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घर-घर में बीएचयू बना है, कहां तक जंग लड़ेगी?

लिखा रेत पर
लिखा रेत पर
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हो कुछ यूँ रहा है कि महिला की स्वतन्त्रता पर लिखे तो संस्कृति का विरोधी, कथित संस्कृति के रखवाले टोले में शामिल हो तो रुढ़िवादी, सरकार को चार गाली पटकाये तो लोकतंत्र का समर्थक, सरकार की आलोचना करे तो गद्दार. समर्थन में लिखे तो भक्त. इसके बाद भूल से सेक्स पर लिख दिया तो इतना कुछ सुनने को मिलता है कि अगली तीन पीढ़ी का सांस्कृतिक भरण-पोषण आसानी से हो जाये. पर सोचना यह भी कि इतना कुछ लिखा जा रहा है इसका फायदा किसे हो रहा है, समाज को या राजनीतिक दलों को?


BHU


काशी हिंदू विश्वविद्यालय परिसर के भीतर गुरुवार को हुई एक छात्रा से कथित छेड़खानी ने बीएचयू की छात्राओं में आक्रोश भर दिया है. या यूँ कहिये, आक्रोश तो पहले से ही था उसे बस बाहर का रास्ता दिखाया. परिसर में लगी इस ज्वाला ने भले ही पाठ्यक्रम न फूंके हो किन्तु एक कथित सांस्कृतिक तबके की सोच को जरूर आंच लगा दी है.


मैंने पढ़ा कि बीएचयू की एक छात्रा आकांक्षा गुप्ता का कहना है, “छेड़खानी की घटना एक दिन की नहीं है. ये आए दिन होती रहती है.” विश्वविद्यालय प्रशासन से शिकायत करने पर उल्टा हमसे सवाल पूछा जाता है कि रात में या बेतुके टाइम में बाहर निकलती ही क्यों हो?”


इसके बाद किसने क्या कहा, किसने क्या सफाई दी, ये बाल की खाल उतारने जैसा काम है. बस असली सवाल यह है रात में या बेतुके टाइम में बाहर निकलती ही क्यों हो?” यही सवाल अगस्त महीने में हरियाणा में था, जब वर्निका कुंडू के साथ आधी रात विकास बराला ने छेड़छाड़ की थी. तब भी यही कहा गया था कि लड़कियां रात को बाहर निकलती ही क्यों हैं. दरअसल, ऐसे सांस्कृतिक सवाल बस-रेल में सफर नहीं करते, ये सीधा खोपड़ियों से खोपड़ियों में सफर करते हैं.


बहरहाल, बताया जा रहा है कि छात्राओं के समर्थन में विश्वविद्यालय के बाहर की भी कुछ लड़कियां आ गईं और उन्होंने भी प्रदर्शन में हिस्सा लिया. शायद ये वो लड़कियां रही होंगी जिन्हें घर में इन सवालों से दबे रहना पड़ता है. इसी का नतीजा है कि बीएचयू की पूर्व छात्राएं भी लिखकर अपना आक्रोश जाहिर कर रही हैं.


एक पूर्व छात्रा प्रदीपिका सारस्वत ने फेसबुक पर लिखा, “2012 में मुझे भी नवीन हॉस्टल मिला था. पहली वॉर्डन मीटिंग हुई तो कहा गया कि हॉस्टल की इज्जत आप सब लड़कियों की इज्जत है. हॉस्टल से एक किलोमीटर की दूरी तक आप किसी लड़के के साथ नजर नहीं आनी चाहिए. उन्हीं दिनों परिसर में 24 घंटे साइबर लाइब्रेरी की शुरुआत हुई. लड़के वहां जा सकते थे, लेकिन लड़कियां नहीं.


इसे आप कुछ इस तरह समझिये कि जब घर में लड़की के सूट के गले और कुल्हे के कट का निर्धारण होने लगे, जब उसकी आवाज कितनी ऊँची हो इसको डेसीबल में मापा जाना लगे, उसके उछलने, कूदने पर शंका की घरेलू प्रतिक्रिया व्यक्त होने लगे और उसके घर से निकलने-घुसने की समय सीमा तय होने लगे, तो उसे बताया जाता है कि घर की इज्जत अब तेरे हाथों में हैं. तब यह सवाल जन्म लेता है कि बेतुके टाइम में बाहर निकलती ही क्यों हो? अब खुद सोचिये कि यह सवाल बीएचयू में पहले आया कि घर में?


लड़कियां कह रही है कि बीएचयू में शुरू से ही एक ख़ास विचारधारा का बोलबाला रहा है. लड़कियां यहां बाहर से पढ़ने भले ही आती हों, लेकिन उन्हें लेकर यहां की सोच में कोई फर्क नहीं है. लड़कियों का खुलापन और आजादी कोई बर्दाश्त नहीं कर सकता, चाहे सहपाठी लड़के हों, प्राध्यापक हों, कर्मचारी हों या फिर ख़ुद महिला छात्रावासों की वॉर्डन ही क्यों न हो.”


चलो अब सतही बात करते हैं, लेकिन यह बात एक महिला के उसके निजी अंगों और पुरुष समाज की कथित इज्जत दोनों अलग-अलग रखकर होनी चाहिए. जैसे आज के समय में जब एक महिला की स्वतंत्रता हमारी सामाजिक जरूरत है, तो क्या हम सबको इसका समर्थन नहीं करना चाहिए? या फिर इसका दायरा भी महिला आरक्षण की तरह केवल वोट बैंक, सतही लोकप्रियता तक  सीमित होकर रह जायेगा?


हालाँकि, महिला समाज को हमेशा वक्ती समझौते बहुत महंगे पड़ते हैं, वो चाहे किसी भी रिश्ते, घर-परिवार या स्कूल में क्यों ना करने पड़े हों, क्योंकि हमेशा पुरुष समाज उसकी जमीन को अपने मतलब के लिए दलदली रखता है. इसीलिए महिला समाज के प्रति जो हिंसा, अत्याचार और शोषण बढ़ रहा है, उसका सबसे बड़ा कारण यह है कि वो रिश्तों में बाँट दी गयी है.


एक माँ और दादी जो खुद महिला होती है, वो बेटी को लेकर पुरुष सोच के साथ खड़ी होती है, भाभी भाई के साथ और बहन जीजा के साथ. अब उसके पास क्या बचता है एक पति या एक प्रेमी, जाहिर सी बात है ये भी पुरुष ही है, तो वो समझ ही नहीं पाती उसकी स्वतंत्रता का मूल क्या है?


बीएचयू की एक पूर्व छात्रा स्वाति सिंह लिखती हैं कि बीएचयू में छात्राओं से छेड़खानी की ये पहली घटना नहीं है. कई बार छात्र-छात्राएं खुद इन मुद्दों के खिलाफ प्रदर्शन कर चुके हैं. पर हर बार प्रशासन कभी उन्हें नंबर कम देने की धमकी देकर पीछे कर लेता, तो कभी उनके घरवालों से प्रेशर दिलवाकर चुप करा देता है. शायद इसके कथित सामाजिक कारण हो सकते हैं, तभी तो देश के राजा ने वहां होते हुए भी अपना रास्ता बदल लिया था. अब इन सभी छात्राओं को अपनी स्वतन्त्रता और सुरक्षा के बजाय बिना स्त्री-पुरुष में बस अपना एक नागरिक होने का अधिकार मांगना चाहिए. वरना घर-घर में बीएचयू बना है, कहाँ तक जंग लड़ेगी?

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