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पढ़ी लिखी लड़की का रेप नहीं होता!!

लिखा रेत पर
लिखा रेत पर
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बॉम्बे हाईकोर्ट ने कहा है कि पढ़ी लिखी लड़कियां धोखा मिलने पर बलात्कार की शिकायत नहीं लगा सकतीं. शादी का वादा रेप के हर मामले में कारण नहीं माना जा सकता. एक लड़की यदि पढ़ी लिखी है और वो किसी अपेक्षा में सेक्स कर रही है तो उसे बलात्कार का नाम नहीं दिया सकता क्योंकि उसमे कोई कार बलात नहीं है. .

शायद अदालत ने यह बताने की कोशिश की है कि यदि एक लड़की किसी लड़के के साथ विवाह से पहले लिव-इन या अन्य किसी कारण स्वयं की इच्छा से सेक्स कर रही है, इसके उपरान्त वह लड़के से कहे कि अब मेरे साथ शादी करे और लड़का मना कर दे तो कानूनन यह रेप नहीं माना जायेगा.

अधिकांश भारतीय युवा सामाजिक परिवर्तन का मज़ा तो लूटना चाहता है लेकिन उसमें अपनी सामाजिक जिम्मेदारी का निर्वाहन करना नहीं चाहता. मतलब अपनी भूमिका के प्रति जो उसने अपनी इच्छा से निभाई थी उसके लिए कानून से न्याय और समाज से संवेदना चाहता है. शायद कुछ इस तरह मानो लड़का, लड़की सेक्स के बाद शादी करे तो दूल्हा दुल्हन. और यदि बाद में एक मुकर जाये तो पीड़ित या पीडिता. हालाँकि यह भारत हैं, यहाँ बाद में लड़के तो रांझे बने सड़कों पर फिरते है और लड़की पीडिता के रूप में रोती दिखाई देती है.

हमारे देश में कभी किसी कानून को लेकर स्पष्ट नीति नहीं रह सकती क्योंकि लोग जब तक जिम्मेदार नहीं होंगे तब तक किसी भी तरह के कानून के दुरूपयोग होने की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता. आजकल लिव इन रिलेशनशिप का रिश्ता युवाओं को काफी भा रहा है. एक बिना जिम्मेदारी का रिश्ता जिसमें फिजिकली और मानसिक त्रप्ति भी हो जाये और अपनी मौलिक स्वतंत्रता का कोई प्रहरी भी न रहे.

मतलब शादी के बाद पति पत्नी एक दुसरे से उसके आने-जाने लोगों से मिलने जुलने पर सवाल उठाते दिख जायेंगे लेकिन लिव-इन में जहाँ एक ने दुसरे की स्वतंत्रता या करेक्टर पर सवाल उठाया तो वहीं एक के पास से दुसरे का बेग उठ जाता है. ज्यादा तीन पांच की तो रेप के केस की धमकी

क्या आपको लगता भारतीय समाज बिना कानून के एक दिन भी चल पायेगा? अभी कई रोज पहले कोई कह रहा था कि स्वच्छ भारत अभियान तब तक सफल नहीं होगा जब तक इसमें ठोस कानून नहीं बनेगा! क्या हमें अपनी जिम्मेदारी अपनी सीमाओं का ख्याल खुद नहीं रखना चाहिए? राष्ट्र और समाज तो दूर की बात स्वयं की जिम्मेदारी भी हम स्वयं नहीं ले सकते?

सहजीवन जहां विवाह से पूर्व का अनुभवपूर्ण प्रायोगिक परीक्षण है वहीं आज के युवाओं ने इसे टाइमपास का माध्यम भी बना लिया है. वे इसे पूरी तरह व्यक्तिगत मामला मानते हैं और हस्तक्षेप को मौलिक अधिकारों का हनन कहते हैं.

अभी कई रोज पहले मैं एक मूवी “सिक्सटीन” देख रहा था उसमें बताया कि फास्ट फूड पर पली बढ़ी आजकल की पीढ़ी सब कुछ जल्दी से जल्दी हासिल कर लेना चाहती है. शायद इस चक्कर में भी शादी का इरादा वो जिंदगी की गाड़ी में बैक सीट पर रख देते हैं और शारारिक आनंद को अगली सीट पर. यात्रा पूरी हुई तो शादी ब्रेक फैल हुए तो रेप

आज कल युवा करियर बनाने में इतना व्यस्त और जिंदगी अपने हिसाब से जीने की तमन्ना रखता कि वह शादी से पहले लिव इन रिलेशनशिप को प्राथमिकता देते हैं. कुछ इस तर्क के सहारे कि सामने वाले को करीब से जानने के बाद ही वो शादी करने का फैसला करेंगे!!

युवाओं द्वारा लिव इन को कुछ तरह पेश किया जा रहा है मानो जो ऐसा नहीं करता वो पुरानी सोच का है उसे आधुनिक जीवन का ज्ञान नहीं है. यदि घर परिवार या समाज में कोई लिव इन रिलेशनशिप का विरोध करता है तो उसकी सोच के विरोधी भी आसानी से खड़े दिख जायेंगे.

अपनी पुराने रीति रिवाज कुछ इस अंदाज में मजाक उड़ाया जाता है.जैसे माता पिता ने अपने जीवन का बेरहमी से विनाश किया हो और यह लोग इसका लुफ्त उठा रहे हो.

इस मामले में अदालत का निर्णय एक किस्म से सही भी है क्योंकि सम्भोग और रेप में अंतर होता है. स्वेच्छिक सम्भोग को रेप कैसे समझे? सम्भोग यानि के बराबर का भोग, दोनों का सामान समर्पण और रेप यानि की एक कि इच्छा के विरुद्ध भोग.

युवाओं की तर्को की माला में तर्क का एक मोती यह भी है कि जीवनसाथी के साथ एडजस्ट करने में कोई परेशानी न हो स्वतंत्रता और आपसी प्यार बना रहे इसके लिए लिव इन रिलेशनशिप में रहना कोई गुनाह नहीं है. लेकिन सवाल यह है क्या हम स्वतंत्रता का अर्थ सिर्फ यह ही क्यों समझ रहे है कि शारारिक संबध किससे बनाये किससे नहीं? स्वतंत्रता के और भी ढेरो मायने हो सकते है.

क्या स्वतंत्रता का अभिप्राय यही रह गया कि सरकार और कानून यदि आनंद में दखल दे तो उनका विरोध करो और यदि किसी कारण प्रेमी या प्रेमिका एक दुसरे के जीवन में दखल दे तो कानून से फटाफट न्याय मिलने की आस करो?

दो प्यार भरे दिल मनुष्यों में ही नहीं बल्कि पशु-पक्षियों में भी धडकते हैं. इस संसार में जब से जीव और जीवन अस्तित्व में आया, तब से सेक्स का उपयोग हो रहा है, सृजन के लिए भी और आनंद के लिए भी. लेकिन आज की परिस्थिति में यदि देखे तो सृजन तो सिर्फ एक मजबूरी बनकर रह गया है….राजीव चौधरी

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