Menu
blogid : 23771 postid : 1302973

अपनी सोच को महिलाओं पर लादना उनका जन्मसिद्ध अधिकार है.

लिखा रेत पर
लिखा रेत पर
  • 79 Posts
  • 20 Comments

कई बार ऐसा महसूस होता है जैसे सोशल मीडिया बवालों का केंद्र है. धर्म और समाज की प्रथाओं, परम्पराओं और कुप्रथाओं के कारण अक्सर यहाँ भी बवाल देखने को मिलते है. किसने क्या पहना, क्या खाया, किसकी सोच कैसी, और कोई धर्म के देशभक्ति के मार्ग से कितना डोल रहा है इन सबका हिसाब किताब सोशल मीडिया पर मिल जाता है. मतलब संस्कृति के लठेत आपको यहाँ भी आसानी से मिल जायेंगे. अभी हाल ही में भारतीय क्रिकेट खिलाड़ी मोहम्मद शमी ने अपनी पत्नी की तस्वीर सोशल मीडिया पर डाली तो कुछ लोगों ने उनकी पत्नी के कपड़ों पर आपत्ति जतानी शुरू कर दी. कपड़ों को धर्म मजहब के खिलाफ तक बता डाला तो कईयों ने उसे इस्लामिक रीतिरिवाज तक बता डाले. लोगों की प्रतिक्रियाँ पढ़ कर शायद मोहम्मद शमी को भी एक पल को लगा हो वो सोशल मीडिया पर है या किसी 8 सदी के मदरसे में जहाँ उसे मौलाना इस्लाम के कायदे समझा रहे है. ऐसा नहीं कि यह पहला मामला है इससे पहले टीवी ऐक्ट्रेस सना खान को भी मांग भरने और मंगलसूत्र पहनने पर इन प्रतिक्रियाओं का सामना करना पड चूका है.

यह समस्या सिर्फ इस्लाम में ही नहीं बल्कि हर एक मजहब के अन्दर है बस फर्क इतना है कि किसी में कम  किसी में ज्यादा. किसी ने खुद को समय के अनुसार ढाल लिया और कोई ढालने जा रहा है. तो कोई हर एक मसलन रहन-सहन खाना-पीना वस्त्र आदि के मामले में अभी भी एक जिद सी लिए बैठा है. लेकिन यहाँ सिर्फ उस सोच का जीकर करे जो लोगों को विरासत में मिली है तो ठीक रहेगा. कि महिलाएं हमारी सम्पत्ति है अतरू वो समय के अनुसार कैसे चल सकती है! वो अपनी पसंद का कपडा कैसे पहन सकती है. कुछ इस तरह जैसे पुरुष समाज, धर्म के अध्यापक हो और स्त्रियाँ छात्र. खैर दुनिया है इसमें सभी तरह के लोग है चलिए थोड़ी बात उनकी करते है जो यह समझते है दुनिया सिर्फ उनकी है. किसी भी धर्मशास्त्र का कोई कथन नारी स्वतंत्रता का अपहरण नहीं करता. लेकिन धर्म मजहब के नाम पर उनकी स्वतंत्रता पर एक अजीब छापेमारी हो रही है. पौराणिक युग में नारी वैदिक युग के दैवी पद से उतरकर सहधर्मिणी के स्थान पर आ गई थी. पर अभी भी कुछ लोग उसे अपने सांस्कृतिक चाबुक से जबरन हांकना चाह रहे है.

मीडिया के माध्यम से पता चला कि इस मामले में सामाजिक कार्यकर्ता और कवयित्री, साबिका अब्बास नकवी को मैंने सुना जो कहती है कि लोगों को ज्ञान देने की लोगों की पुरानी आदत है, खासकर औरतों को. अपनी सोच को दूसरों, खासकर महिलाओं पर लादना उनका जन्मसिद्ध अधिकार है. उन्हें लगता है कि औरत संस्कृति, मजहब का संग्रह है. तस्वीर डालने का मोहम्मद शमी का मकसद कुछ भी रहा हो, अगर आपको उसमें खराबी नजर आती है तो मेरी सोच में इसका मतलब है कि आप की सोच में खराबी है. अगर कोई उस पुराने ढांचे के खिलाफ जाता है तो उसके मजहब पर सवाल उठाए जाते हैं. ये सवाल किसी मर्द की वेशभूषा पर नहीं उठाए जाते हैं. यदि किसी की तस्वीर देखकर अगर आपको परेशानी होती है तो आप उसे न देखें, उसे अनफॉलो कर दें. कौन आपसे जोर जबरदस्ती कर रहा है दूसरों की तस्वीर देखने की?

एक समय केरल के अन्दर नीची जाति की महिलाओं को स्तन ढकने का अधिकार नहीं था. उन्हें “ब्रेस्ट टेक्स” स्तन कर तक देना पड़ता था. तब किसी संस्कृति के रखवालों लठेतो की नजर उस ओर क्यों नहीं गयी? आज क्यों महिला का स्तन दिखना इन्हें शर्मसार कर देता है. आज ही क्यों इन लोगों को मजहब ढेहता दिखाई देता है? मैंने सुना है कि पोर्न मूवी देखने में भारत का अव्वल नम्बर है. क्या कोई बता सकता है कि पोर्न मूवी में कौनसा कपडा पहना जाता है जो पुरुषों को पसंद होती है? क्या उसमें बुर्का होता है या साड़ी सूट सलवार? लगता है जैसे कुछ पुरुषों के हाथ में हर वक्त संस्कृति और चरित्र मापने का फीता रहता है. कुछ इस तरह जैसे महिलाओं को उस फीते से यह लोग नियंत्रित करना चाहते हैं. जब तक महिलाएं एक तरह के कपड़े पहनती हैं कोई दिक्कत नहीं लेकिन जहाँ उसने जरा सा भी कपडा इधर-उधर किया. “ओह तेरी, चरित्रहीन गिरी हुई कहीं की! कुछ इस अंदाज में उसका नामकरण सा कर दिया जाता है. दिल्ली यूनिवर्सिटी की छात्रा आरफा बताती है कि मैं खुद मुस्लिम बहुल इलाके में रहती हूं. मुझे सोचना पड़ता है कि मैं क्या पहन रही हूं ताकि लोग मुझे आंकना न शुरू कर दें. मैं वहां शॉर्ट्स कपडे नहीं पहनती. मुझ पर एक नैतिक दबाव होता है लेकिन ये खुद की पसंद और सहिष्णुता का मामला है.

हाल में कुछ मुस्लिम छात्रा समी विवाद से किनारा करना चाहती है तो कुछ बेबाक कहती है कि कभी इस्लाम एक प्रगतिशील धर्म की तरह आया था जिसमें महिलाओं को बहुत सारे अधिकार दिए गए. लेकिन पता नहीं लोगों ने कैसे धर्म को अपने हिसाब से ढाल लिया है. कई बार आप देखना मेट्रो आदि के अन्दर कुछ मुस्लिम लड़कियां जींस टॉप के ऊपर बुर्का पहने दिख जाएगी इसका यह मतलब कतई नहीं है कि वो धार्मिक नहीं है बल्कि इसका सीधा मतलब है कि वो अपना जीवन स्वतन्त्रतापूर्वक जीना चाहती है लेकिन पुरुष समाज की इस प्रधानी के कारण वो डर-डरकर और सावधानीपूर्वक अपनी इस खाने-पीने पहनने की आजादी का सुख महसूस करना चाहती है. महिला समाज की स्वतंत्रता की बात आते ही अक्सर लोग तुलसीदास की ढोल, गवांर, शुद्र, पशु नारी यह सब है ताडन अधिकारी इस चोपाई का हवाला देकर हनन करते  दिख जायेंगे. पर इस देश में एक संत और भी हुई वह तुलसी थे, यह संत “मरवादास” थी इनकी भी एक चोपाई है कि ढोल, गवांर, पुरुष और घोडा जितना पीटो उतना थोडा. अब यह संत कौन थी, कहाँ इसका जन्म हुआ! इस बारे में मुझसे बिलकुल मत पूछना!!..राजीव चौधरी

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh