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रालोद दो कदम आगे चार कदम पीछे

लिखा रेत पर
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उत्तर प्रदेश में राजनीतिक दल ढेर सारे है और उससे दौगुने मुद्दे, ऐसे में मेरा एक सवाल यह है कि क्या 2017 के चुनाव में रालोद अपने मजबूत गढ़ बचा पायेगा? जहाँ शोर मचाने और हाय तोबा करने में रालोद की राजनीति दो कदम आगे दिख रही वहीं क्षेत्रीय मुद्दों को उठाने में चार कदम पीछे दिख रही है. फ़िलहाल तो भाजपा को सत्ता से रोकना ही पार्टी की सबसे बड़ी चुनौती माना जा रहा है. यदि इस दल के किसी नेता या कार्यकर्ता की माने तो जैसे भाजपा ही प्रदेश की मूल समस्या है. जबकि सर्वसमावेशी विकास के, प्रशासनिक राजनीतिकरण के, भ्रष्टाचार और नौकरियों की बिक्री जैसे अहम मुद्दे पार्टी के लिए कोई बड़े मायने नहीं रखते. हालाँकि पार्टी की सबसे मजबूत ढाल रहे किसान को भी देखकर लग रहा है कि वो इस समय अन्य राजनैतिक दलों में परखी मार देख रहा है.

रालोद का नाम आते ही किसान मसीहा चौधरी चरणसिंह का नाम उल्लेखनीय हो जाता है. लेकिन बदलती राजनैतिक परिस्थिति को देखकर लगता है कि लोगों के मन में चौधरी चरण सिंह के प्रति श्रद्धा तो अगाध है किन्तु अजीत सिंह धीरे-धीरे यमुना के रेतीले किनारों की तरह ढहता दिखाई दे रहा है. जिस कारण आज क्षेत्र में वो नौजवान नेता अजीत सिंह को टक्कर देते दिखाई दे रहे है जिनका जन्म अजीत सिंह के राजनैतिक कैरियर के दौरान हुआ है. शायद इसी कारण आज रालोद में आउटगोइंग और भाजपा में इनकमिंग फ्री है. पिछले दिनों रालोद ने जेडीयू से गठबंधन किया था हालाँकि जेडीयू की हालात पश्चिमी उत्तर प्रदेश ऐसी है जैसी बिहार में अजीत सिंह की फिर भी में बता दूँ जहाँ तक मेरा राजनैतिक द्रष्टिकोण है महागठबंधन हमेशा वहां होते है जहाँ चुनाव लड़ने वाले दल खुद को सैद्धांतिक रूप से कमजोर और मुद्दा विहीन पाते है. मसलन सत्ता का रस पीने के लिए राजनीतिक दलों का एक आर्टिफिसियल बगीचा तैयार करना.

2014 के लोकसभा चुनाव में हार के बाद रालोद पार्टी अपने आप को फिर से उत्तर प्रदेश में जिंदा करने के लिए नए तरीके खोज रही है. चाहें में जातिगत गठजोड़ करना हो या फिर हमेशा की तरह गन्ने जैसे मुद्दे को लेकर चीलम चिल्ली. पिछले कुछ महीने से पार्टी द्वारा नए-नए प्रयास किए गए. हर स्तर पर टीम बनाई गई जो कि रालोद पार्टी को नींद से उठाने में जुट गई. हालाँकि यह पहले भी कई बार हो चूका है और रालोद पार्टी सांप-सीढ़ी के इस खेल में फिर से वहीं पहुंच जाती है जहां से  वह बाज़ी शुरू करती है. पार्टी की नीति और कार्यशैली से उपेक्षित जब कोई नेता पार्टी छोड़कर अन्य दलों में जाता है तो हमेशा इस तर्क के सहारे दुःख या संतोष व्यक्त किया जाता कि रालोद छोड़ने वाले किसी भी नेता का आज तक भला नहीं हुआ. एक बददुवा सी दी जाती है जबकि राजनितिक दल दुआ और बददुवा से नहीं बल्कि अच्छी कार्यशैली ही सत्ता के उत्तुंग शिखर को स्पर्श करते है. लेकिन इस प्रश्न को कोई नहीं उठाता कि इन नेताओं के पार्टी छोड़ने से रालोद क्या भला हुआ? पिछले दो दशको में पार्टी ने कितनी बार दहाही अंको से ज्यादा सीटें जीतकर दिखाई?

अभी में कई रोज पहले बडौत से गुजर रहा था तो मुझे कांग्रेस के कुछ बैनर नजर आये जिनपर लिखा था ‘27 साल, यूपी बेहाल’ लेकिन मुझे लगा कि रालोद चाहें तो इसी तरह के बैनर लगा सकती है कि चौधरी चरणसिंह के बाद “29 साल रालोद बेहाल” में रालोद पार्टी के उदय और पतन की बात न करते हुए मूल मुद्दे पर आकर यदि सवाल रखूं कि आखिर किसको नहीं समझ में आ रहा है कि रालोद को सत्ता नहीं बस 2017 में सत्ता में बैठने का हिस्सा चाहिए? अधिकांश का जबाब शायद हाँ होगा. इसके पीछे मेरा इसके पीछे मकसद पार्टी पर सवालिया निशान लगाना नही केवल इतना है कि पार्टी के नेता गंभीरता से लें. शुरुआत काबिल-ए-तारीफ थी. तो अंत इतना बुरा क्यों? यह भी उन्हें ही सोचना होगा! हालांकि आज ऐसा मुगालता किसी को नहीं हैं कि रालोद वापस सत्ता में आ सकती है.

फ़िलहाल पार्टी नोटबंदी के खिलाफ किसान मजदुर की इससे बेबसी पर दुःख जताकर अपनी आवाज़ बुलंद करके पार्टी को यह जानते हुए भी फिर से पटरी पर तेजी से लाने दौड़ाने में लगे हुए हैं. कि वातावरण भाजपा के अनुकूल है. हालाँकि भारत का जनमानस स्वभाव से राजनीतिक नहीं है. सामान्य व्यक्ति इस या उस दल का प्रतिबद्ध मतदाता नहीं होता. वह स्थापित नेताओं की तरह माहौल भांपकर दल बदल नहीं करता. वह चुनाव के समय निर्णय लेता है. मतदाता आज समझ रहा है कि सपा का अपना घर ठीक नहीं है मुलायम सिंह खुद बड़ी चुनौती का सामना कर रहे हैं. बसपा के पास इस समय न कोई मजबूत जनाधार और न ही नेता दिखाई दे रहे है खुद मायावती के गुस्से से भरे बयान अभी से पराजयवादी दिख रहे है. कांग्रेस के सामने एक बार फिर अपना अस्तित्व बचाए रखने की चिंता है. हालाँकि यूपी में हरेक घटना नए समीकरण लाती है. मुस्लिम वोट की एकजुटता से चुनाव के परिणाम पर बहुत फर्क पड़ सकता है. यदि ऐसे में कोई बड़ा गठबंधन खड़ा भी होता है तो तकरार ये भी रहेगी कि कौन सास बने और कौन बहु? लेकिन रालोद को मुस्लिम वोट बैंक का मोह छोड़ देना चाहिए क्योंकि रेस में एक बार पीछे रह जाने के बाद वापस अपनी जगह बनाना आसान काम नहीं होता है…राजीव चौधरी

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