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लड़के होकर रोते नहीं!!

लिखा रेत पर
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निर्भया रेप केस को गुजरे चार साल हो गये. साल 2012 निर्भया सामूहिक बलात्कार कांड के बाद जिस तरह दुनिया का ध्यान भारत में महिलाओं के ख़िलाफ यौन हिंसा की तरफ गया, उसने आम लोगों की सोच और देश की न्याय व्यवस्था पर गहरा प्रभाव डाला पड़ा था. हालाँकि उसके एक आरोपी ने आत्महत्या की तो दुसरे को नाबालिग मान कर रिहा कर दिया गया. बाकि शेष बचे आरोपी अपनी बारी का इंतजार कर रहे है. हाल ही मैंने एक शोर्ट स्टोरी फिल्म “स्टार्ट विद द ब्वायज” देखी. इस फिल्म ने मुझे सिखाया कि लड़के रोते नहीं बचपन से परिवार यार दोस्त रिश्तेदार सब मिलकर लड़कों को बस एक चीज सिखाते है कि लड़के रोते नहीं. जैसे रोने का काम सिर्फ लड़कियों का है और रुलाने का काम लड़कों का!!!

शायद यही सोच लेकर हम बड़े होते है. कि लड़के रोते नहीं! तभी तो बीबीसी की डाक्युमेंटरी में दामिनी यानि निर्भया का कातिल किस तरह हंस-हंसकर अपनी क्रूरता के किस्से सुना रहा था. काश! हम लोग लड़कों यह भी सिखा सिखा पाते कि यदि लड़के रोते नहीं तो लड़के किसी मासूम की बेबसी पर हँसते भी नहीं! भारत में हर पांच मिनट में एक घरेलू हिंसा का मामला दर्ज होता है और हर 21 मिनट में एक बलात्कार का मामला रिपोर्ट होता है. सवाल यह है कि इसका जिम्मेदार कौन है? पुलिस कहती है ज्यादातर रेप परिवारों के अन्दर होते है हम उन्हें उसे कैसे रोक सकते है? समाज कहता है 90% मामले झूठे होते है कुछ मक्कार औरतों द्वारा इस कानून का गलत फायदा उठाया जा रहा है. न्याय व्यवस्था कहती है हमें जैसा कानून मिलेगा हम तो ऐसी ही सजा सुना देंगे! यदि कल कानून रेप के आरोपी को फूल देकर छोड़ने को कहेगा तो हम मजबूर है उसे फूल देकर छोड़ने के लिए. आखिर लाखों मां-बाप कहां गलती कर रहे हैं? परवरिश करने में या सोच तैयार करने में कि लड़की का रोना पाप नहीं और लड़का होकर रोता है? हमेशा एक इसी तर्क की चोट पर सारे मामले को रफा दफा किये जाने की कोशिश होती है कि साहब अपनी बच्चियों पर थोड़ा कंट्रोल रखें, जमाना ठीक नहीं, लड़के बहुत तेज चल रहे हैं.

आज समाज के सामने यदि प्रश्न रखा जाये कि कितने फीसदी मर्दों को बलात्कार पीड़ित महिला से वाकई हमदर्दी होती है और कितने प्रतिशत ये समझते हैं कि हो न हो इसमें बलात्कार होने वाली का भी कसूर होगा? क्या हर मर्द बलात्कारी हो सकता है? ये तो मैं नहीं जानता, लेकिन जिंदगी में बहुत से मर्द किसी न किसी कमजोर के बारे में कम से कम एक दफा जरूर सोचते हैं कि अगर बस चले तो इसका बलात्कार कर दूँ!! अब लोग कहेंगे तेरा दिमाग खराब है पांचों अंगुलिया बराबर थोड़े ही ना होती. में भी मानता हूँ बराबर नहीं होती पर दोनों हाथ जरुर बराबर होते है जिनसे जकड़कर किसी को बे-आबरू किया जाता है.

एक कहावत है सांच को आंच नहीं पर अब यकीन मानिये सच को आंच है. सच न निगलते बनता न उगलते दिल पर हाथ रखकर कितने मर्द बता सकते है कि वो चलती लड़की के पीछे या सामने से आ रही लड़की का सीना न ताकते हो? या रेप को हत्या जैसा अपराध समझते हो? मुझे पूरी उम्मीद है और भरोसा भी हर कोई यही कहेगा यार बहुत लोग है पर में ऐसा नहीं हूँ. और इसके बाद जवाब आता है अरे पर क्या जरूरत है इन लड़कियों को सिंगार पटार की. ये लड़की कौनसा कम है इनके कपडे देखो! फिर जंघा और पेट पर हाथ लगाकर उसके कपड़ों का साइज बताने लगते है. चलो एक पल को यह कारण मान कि रेप सिर्फ कपड़ों के कारण होता है? यदि ऐसा है तो मोदीनगर में तलहेटा गांव से 26 साल की लड़की को कब्र से निकालकर रेप करने वाले क्या बता सकते है कि कफन का साइज भी क्या उनकी इस सोच की अपेक्षाकृत छोटा था?

इस फिल्म ने सही सन्देश दिया कि लड़के हँसते है. चाहें औरत के ऊपर भद्दे चुटकले सुनाकर हँसते हो या फिर हर एक गाली में उसे खीचकर. अब प्रश्न है क्या औरत की चीख या सिसकी ही मर्द की जीत का प्रतीक है? चाहें उसकी सिसकियाँ रोने के दौरान हो या साथ सोने के? अच्छा, ये रेप  सिर्फ औरत का ही क्यों होता है? औरत के भी तो जज़्बात होते होंगे और शायद ये जज़्बात बेकाबू भी होते होंगे. तो फिर ऐसा क्यों नहीं होता कि तीन-चार औरतें एक बस या ट्रेन में अकेले रह जाने वाले किसी ख़ूबसूरत लड़के को पकड़कर उसका बलात्कार कर डालें और फिर चाकू से उसकी गर्दन और बाक़ी जरूरी चीजें भी काट डालें. उसके नाजुक अंगो पर लोहे की राड से वार करें. क्या फर्क पड़ता है लड़का है रोयेगा नहीं क्योंकि उसे सिखाया जाता है लड़के होकर रोते नहीं. या फिर अगर किसी का मर्द किसी और दूसरी महिला साथ चोरी-छुपे पकड़ा जाए तो वो घरवाली या गर्लफ्रेंड चार-पाँच सखियों-सहेलियों के साथ इस मर्द को पकड़कर इज्जत के नाम पर आम के पेड़ से लटका दें? शायद यह घुट्टी ही गलत है जिसे पिलाकर समाज आज बचपन को पाल रहा है कि लड़का होकर रोते नही यदि यह घुट्टी बदलकर दूसरी दे कि लड़का होकर किसी को रुलाते नहीं तो शायद हर वर्ष न जाने कितनी लाड्डो, निर्भया, बनने से बच जाएगी…राजीव चौधरी

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