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नोटबंद क्या हुआ! मानो कुछ लोगों की धडकने बंद हो गयी. कलमकार, कलाकार, मीडिया और नेता एक बार फिर मुखर होकर देश की अर्थव्यवस्था की नब्ज सी पकडे बैठे है. कोई कह रहा है मोदी जी ने अच्छी दवा पिलाई है. कोई कह रहा है दवा तो ठीक है पर खुराक का समय गलत है. किसी को इस दवा के परहेज से ही परहेज है तो कुछ अपशब्दों की उल्टियाँ कर रहे है. मज़े की बात ये है कि आजकल देश में पांचवी पास से लेकर इकोनॉमिक्स में फेल पत्रकार तक इकोनॉमी के एक्सपर्ट की तरह ज्ञान पेल रहे है,
रविवार को दैनिक जागरण में खबर पढ़ी की 85 फीसदी लोग मोदी के फैसले से खुश है. पर मुझे यह खबर आधी अधूरी सी लगी. हालाँकि समाचार पत्रों की अपनी मर्यादा होती है, सीमा होती है. शब्दों का चयन और सुचिता का ध्यान भी रखना पड़ता है अब समाचार पत्र कोई केजरीवाल तो है नही! कि कोई जिम्मेदारी नहीं है जो अभिवयक्ति की आजादी के नाम पर कुछ भी बोल दे. खैर प्रश्न यह है कि ये 15 फीसदी कौन है? कहीं ये वो तो नहीं जो याकूब मेमन की फांसी के विरोध में रात भर सुप्रीम कोर्ट के द्वार पर खड़े रहे थे? या वो है जो अफजल गुरु की मौत से शर्मिदा है? नहीं तो वो होंगे जो जेएनयू में नारे लगाने वालों का समर्थन कर रहे थे? बहरहाल जो भी हो, अभी मुझे कोई कह रहा था कि इन 15 फीसदी को तो ऊपर वाला भी खुश नहीं रख सकता. भला एक चाय वाला कैसे इन लोगों को खुश रख सकता है?
बहरहाल नोटबंदी को कई दिन हो गये मीडियाकर्मी जगह भीड़ देखकर पहुँच रहे है. जमा भीड़ से पूछ रहे है- आपको क्या परेशानी हो रही है? दस लोग बता रहे है कोई परेशानी नहीं है साहब, देश हित में बिलकुल सही फैसला है. यदि कोई एक कह देता है कि बाबूजी सुबह से आया हूँ बड़ा परेशान हूँ जी. बस इतना सुनते ही मीडियाकर्मी की आँखे भर आती है, भाई जोर से बोलो आप जैसे लोग नहीं होंगे तो हमारी टीआरपी और विपक्ष का क्या होगा. तन से ना सही मन से उसे सीने से लगा लेते है. सुना है मोदी जी ने 50 दिन का समय माँगा है मान लीजिये जैसे 50 ओवर का मैच है, विरोधी सोच रहे है राजनीतक पावर प्ले से पहले ही आउट कर लो वरना फिर सारे एटीएम चालू होकर फिर फील्डिंग फ़ैल जाएगी, कहीं बल्लेबाज़ शतक ना मार दे या स्कोर बड़ा खड़ा हो जाये. फिर मैच जितना मुश्किल तो क्यूँ न जनता की परेशानी के नाम पर बाउंसर मारे जाये.
हालाँकि परेशानी की बात की जाये तो मुझे पिंक मूवी का आखिरी डायलाग याद आ जाता है. बच्चन साहब कहते है- नो का मतलब नो होता. जिसे तर्क और व्याख्या की जरूरत नहीं होती इसी तरह परेशानी का मतलब भी परेशानी होता है. एक आम इन्सान को परेशानी कहाँ नहीं होती? सड़क पर जाम लगा हो उसमें परेशानी, पड़ोसी मकान बना रहा जब परेशानी, सुबह शाम मेट्रो में परेशानी, अस्पताल की लाइन हो या राशन की, बच्चों की शिक्षा की फ़िक्र हो या शादी की. मकान मालिक के साथ चिकचिक हो या कम्पनी के मैनेजर की डांट. यह सब परेशानी ही तो है. अब इनसे कहाँ भाग जाये? दर्शन शास्त्र की भाषा में कहा जाये तो जीवन है तो परेशानी है. इससे बड़ी बात क्या होगी कि 2 मिनट में जमीन जायदाद, से लेकर सारी परेशानी दूर करने वाले सारे बंगाली बाबा , पीर फकीर बैंक के बाहर परेशान लाइन में खड़े है.
अनुशासन और कर्तव्यपरायणता ये चीजे जिस देश के नागरिक के अन्दर होती है वो देश महान होता है. नोटबंदी पर लोगों ने जो एकता का परिचय दिया वो बेमिसाल है. बसों, मेट्रो, ऑटो, हज्जाम की दुकान से लेकर चाय और पान की दुकान तक फैसले को सरहाया जा रहा. पूरा देश प्रधानमंत्री के इस साहसिक कदम की प्रशंसा करने में जुट गया, सिवाय कुछ उन राजनीतिक दलों के, जिनको इससे राजनीतिक और आर्थिक दोनों झटके लगे थे. इस घोषणा की सीधे-सीधे आलोचना करना मुश्किल था तो इस धर्मसंकट को साधा गया ‘जनता को हो रही असुविधा के नाम पर.’ और जनता है कि ‘वह सब जानती है.’ वह जानती है कि असुविधा किसको-किसको हो रही है. वह मुस्करा रही है और मन ही मन फैसले भी कर रही है. वह खुश भी है कि मुखौटे उतर रहे हैं और असली परेशानी किसको है! कांग्रेस के एक वरिष्ठ प्रवक्ता से एक न्यूज़ चैनल पर कालेधन पर हुई बहस के बाद जब डॉ विजय अग्रवाल ने पूछा कि ‘मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि इतने स्पष्ट और जरूरी कदम पर विपक्ष जनता के मनोभाव को भांपने में इतनी बड़ी गलती कैसे कर रही है?’ इस पर उनका छोटा सा ही सही लेकिन ईमानदारी से भरा जवाब था कि ‘आखिर हमें कुछ न कुछ तो आलोचना करनी ही है. ……..राजीव चौधरी
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