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क्या प्रीति को भी कीमत चुकानी पड़ी थी?

लिखा रेत पर
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मुंबई की एक अदालत ने प्रीति राठी एसिड अटैक केस में ऐतिहासिक फ़ैसला सुनाते हुए दोषी पाए गए युवक अंकुर पंवार को मौत की सज़ा सुनाई है. सर्वविदित है कि 3 मई 2013 की सुबह के अखबार के पहले पन्ने की यह खबर पढ़कर सबका मन भर आया था कि  बांद्रा टर्मिनस पर दिल्ली से गरीब रथ एक्सप्रेस से मुंबई में पहली बार उतरी प्रीति राठी के ऊपर एक व्यक्ति ने एसिड फेंक दिया। हमलावर ने उसके कंधे पर पीछे से हाथ रखा और जैसे ही लड़की ने पीछे घूम कर देखा उसके चेहरे पर एसिड फेंक कर वह भाग गया। इतनी भीड़ वाले इलाके में भी कोई उसे रोक या पकड़ नहीं कर पाया और वह एक जिंदगी बर्बाद कर फरार हो गया था. खैर अब वो (अंकुर) कानून की गिरफ्त में है और अदालत के आदेशनुसार फांसी का फंदा उसका इंतजार करने लगा है. खबर है कि प्रीति राठी के पडोस में रहने वाला अंकुर पंवार उसकी कामयाबी से जलने लगा था कुछ लोग इसे एक तरफ़ा प्यार भी कहते है. जिसकी कीमत प्रीति को चुकानी पड़ी. मैं आज यहाँ कुछ लिखने से पहले मृतक प्रीति को ध्यान रखकर उसके हस्तलिखित पत्रों को पढ़कर जिनमें वो परिवार को समझा रही कि महंगे अस्पताल में इलाज मत कराना भाई बहन को होसले रखने को कह रही है मन पुन: उतना ही द्रवित हो गया जितना तीन मई की सुबह यह खबर पढ़कर हुआ था. पता ही नहीं चला कि कब में ये तीन साल बीत गये हालाँकि हम दिल्ली 2012 में हुए निर्भया गेंगरेप के बाद में मोमबत्ती वाले वही क्रन्तिकारी थे. जिन्होंने दिल्ली को हिला दिया था पर क्या करे कभी राधे माँ, तो कभी संत रामपाल कभी अख़लाक़ तो कभी दयाशंकर और मायावती टकराव हमे इससे आगे कुछ सोचने ही नही देता जिसका नतीजा एक के बाद एक न जाने प्रीति और निर्भया जैसी कितनी मासूम लड़कियां एसिड अटैक और रेप का शिकार हुई! पर इन अपराधो के बारे में सोचने का टाइम हमारे पास कहाँ है.

हर एक घटना के बाद पत्रकार खबर बनाकर, लेखक उस पर लिखकर, समाज मोमबत्ती जुलूस निकलकर, कानून सजा सुनाकर, चाहे छोटी हो बड़ी. और बालीवुड एक मूवी बनाकर अपना अपना धर्म सा निभाकर छुट्टी सी कर सोचते है कि अब हमारी जिम्मेदारी खत्म हुई जैसे हमने समाज को गंगा स्नान करा दिया हो. लेकिन इसके बाद फिर वही कहानी बेरहमी से एक नई घटना को हमारे सामने ले आती है ऐसा क्यों? आज मै खुद को प्रीति की उन चीखों के बीच खड़ा सा महसूस कर रहा हूँ जो उसने मुम्बई जैसे एक अनजान शहर में घटना के तुरंत बाद लगाई  होगी. घटना आज फिर नए सिरे से सोचने पर मजबूर कर रही हैं कि क्या सारी स्त्रियां पुरुष सत्ता या वर्चस्व की शिकार हैं या उनका एक खास हिस्सा ही इससे पीड़ित है? आये दिन अखबारों में इस तरह की घटना आती है कि प्रेमी ने प्रेमिका के ऊपर तेजाब डाला, शादी से इंकार करने पर प्रेमिका की हत्या, एक तरफा प्यार में लड़की की जान ली मसलन ना जाने एक लड़की जिसे अखबार और न्यूज़ चैनल प्रेमिका लिखते है उसकी हत्या और बलात्कार के कितने रूप और कितनी विविध कहानियों से समाचारपत्र भरे रहते है. सुधा अरोड़ा के शब्दों में कहे तो प्राइवेट सेक्टर में यौन-शोषण और दुर्व्यवहार के मामले हमारे देश में सबसे ज्यादा सामने आते है आमतौर पर  महिलाएं इससे बचती हुई अपनी आजीविका को बचाने में लगी रहती हैं। बहुत सारे मामलों में वे या तो चुप्पी साध लेती हैं या समझौता करते हुये वहां बनी रहती हैं लेकिन जो इस मामले के खिलाफ खड़ी होती हैं और इसे बाहर ले जाने का साहस करती हैं उन्हें सबसे अधिक खामियाजा सामाजिक रूप से भोगना पड़ता है। बदनाम चरित्र के कुप्रचार के सहारे उन्हें इतना कमजोर कर दिया जाता है कि वे अक्सर अपनी लड़ाई अधूरी छोड़ देती हैं या बीच में ही थक कर बैठ जाती हैं। जिसका जीता जागता उदहारण अभी हरयाणवी लोक गीत सपना चौधरी के मामले में उसके सुसाइड नोट के माध्यम से सामने आया है| इसका सबसे खराब असर यह होता है कि महिला की चुप्पी को उसके प्रति हुए अन्याय के खिलाफ खड़े होने वाले लोग, अपनी धारणा में उसे ही चरित्रहीन मान लेते है।

कल शाम कनाट पैलेस के अन्दर मोहन सिंह पैलेस के बाहर दो विदेशी युवती सूट सलवार पहने नजर आई उन्हें देखते ही मुझे अभी हाल ही में दिया भाजपा सांसद का बयान याद आया कि विदेशी महिलाएं भारत में स्कर्ट ना पहने फिर सोचा क्या हम इतना गिर गये कि एक महिला का जरा सा आकर्षक होना हमे रास नहीं आता जिससे धार्मिक क्षेत्रों से लेकर बलात्कारी मानसिकता तक भूचाल सा आ जाता है. यदि वो अपनी पसंद के कपडे पहन ले या अपना करियर, प्रेम और शादी जैसे मसले पर स्वयं निर्णय लेने और जो उसे पसंद नहीं उस बात को ज़ाहिर करने में अपनी झिझक से बाहर आ जाये तो उसे इसकी कीमत चुकानी होती है. ज्यादातर लड़कों को लड़कियों से ”ना” सुनने की आदत नहीं है। ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं अक्सर हिंदी फिल्मों में नायक नायिका का रास्ता रोककर प्रेम का इजहार करता है. जिसे नायिका ठुकरा देती है. इसके बाद नायक को उसके घर या गली के चक्कर काटता दिखाया जाता है जिस पर फिल्म देख रहे लोग ताली बजा रहे होते है जबकि यह एक तरीके से गलत है पर कई बार तो नायक द्वारा उसे मजबूर सा कर उसका प्रेम हासिल करते दिखाया जाता है. वो फ़िल्मी पर्दा है किन्तु बाहर के सामाजिक जीवन में यदि ऐसा होता है और लड़की बिलकुल मना कर दे तो उसे परिणाम भुगतने की चेतावनी दी जाती है. प्रेम निवेदन या सेक्स निवेदन करने वाला लड़का  अक्सर लड़की को अपनी जागीर समझता है और प्रतिशोध के लिए उतावला हो उठता है। कि एक लड़की होकर इनकार करने की हिम्मत कैसे हुई? त्याग, समर्पण और विसर्जन की भावनाओं की जगह अधिकार, कब्जा जताना और हासिल करना बुनियादी अधिकार सा बन खड़ा हुआ है। जो स्त्रियों के लिए लगातार खरतनाक होती जा रही इस दुनिया के बारे में गंभीरता से सोचना का आज सबसे जरूरी सवाल है अब समाज को सोचना होगा कि क्या कारण है बलात्कार, हत्या और एसिड अटैक की हर घटना के देशव्यापी विरोध के बाद हम आशावादी होकर सोचते हैं अब ऐसी घटना न होगी और अभी सांस ठीक से ले भी नहीं पाते कि एक और घटना हमारी संवेदना के चिथड़े उड़ा देती है!! राजीव चौधरी

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